आज हम जिस दौर से गुजर
रहे हैं शायद आजाद भारत में ऐसा षडयंत्र कभी नहीं रचा गया होगा जिसमें जनता की चीखों
को बड़े शातिराना तरीके से दबाया जा रहा हो और हमारे हुक्मरान धृतराष्ट्र की मुद्रा में
विराजमान हों। जहां रोहित बेमिला एवं कन्हैया जैसे उदाहरण एक बानगी भर है। एक कविता
जो पन्द्रह वर्ष पहले लिखा था जो कहीं भी प्रकाशित होने वाली संभवत: मेरी पहली कविता है। अखबार
था वाराणसी से प्रकाशित होने वाला ‘ गांडीव ’ और
साल था 2001 जिसकी प्रासंगिकता
आज भी उतनी ही है जितनी तब भी थी । केवल चेहरे बदल रहे हैं सिंहासन पर, आम आदमी वहीं
का वहीं है।
अगली पोस्ट जल्द ही
जो वागर्थ के फरवरी 2016
अंक
में प्रकाशित मेरी तीन कविताओं पर होगी। फिलहाल प्रस्तुत है रैदास जयंती पर मेरी पहली कविता।
रैदास की कठौत
रख
चुके हो कदम
सहस्त्राब्दि
के दहलीज पर
टेकुरी
और धागा लेकर
उलझे
रहे
मकड़जाल
के धागे में
और
बुनते रहे
अपनी
सांसों की मलीन चादर
इस
आशा के साथ
कि
आएगी गंगा
इस
कठौत में
नहीं
बन सकते रैदास
पर
बन सकते हो हिटलर
और
तुम्हारे टेकुरी की चिनगारी
जला
सकती है
उनकी
जड़
जिसने
रौंदा कितने बेबस और
मजलूमों
को।
संपर्क - आरसी चौहान (प्रवक्ता-भूगोल)
राजकीय इण्टर कालेज गौमुख, टिहरी गढ़वाल उत्तराखण्ड 249121
मोबा0-08858229760 ईमेल- chauhanarsi123@gmail.com
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें