शुक्रवार, 26 दिसंबर 2014

पेटेंट:आरसी चौहान




          आरसी चौहान
पहले यवन, पह्लव, शक और कुषाण आये
और अपने-अपने तरीके से
भारत को पेटेंट कराना चाहे
फिर पुर्तगाली, डच ,फ्रांसीसी
और ब्रिटिश आये
पेटेंट का नया फार्मूला अपना
हमें कई खण्डों में बांटकर
कूटनीतिक चाल से
हथियाना चाहे
तब हम अर्द्धखामोश थे
हमारी चेतना जगी क्या
कि हमारी  जड़ी- बूटियों को
पेटेंट कराया
बासमती चावल, हल्दी ,नीम व
वेद- पुराण के नामों को
पेटेंट कराया
अब वो दिन दूर नहीं
जब वे मेरी भाषा- संस्कृित और
अस्मिता को पेटेंट कराएंगे
और घुसते चले आएंगे
हंसते आंगन में
प्रायोजक की तरह
छुएंगे अपने -अपने तरीके से
बहू -बेटियों के अनछुए अंग
और जब तक हम न्यायालय में
याचिका दाखिल करेंगे
तब तक घर की बहुएं लूट चुकी होंगी
और उनकी अस्मिता
बालू की भित्ति की तरह ध्वस्त।
संपर्क - आरसी चौहान (प्रवक्ता-भूगोल 
 राजकीय इण्टर कालेज गौमुख, टिहरी गढ़वाल उत्तराखण्ड 249121   मोबा0-08858229760 ईमेल- chauhanarsi123@gmail.com

रविवार, 23 नवंबर 2014

बेर का पेड़-आरसी चौहान



                             आरसी चौहान

मेरा बचपन
खरगोश के बाल की तरह
नहीं रहा मुलायम
ही कछुवे की पीठ की तरह
कठोर ही

हाँ मेरा बचपन
जरूर गुजरा है
मुर्दहिया, भीटा और
मोती बाबा की बारी में
बीनते हुए महुआ, आम
और जामुन

दादी बताती थीं
इन बागीचों में
ठाढ़ दोपहरिया में
घूमते हैं भूत-प्रेत
भेष बदल-बदल
और पकड़ने पर
छोड़ते नहीं महिनों

  
कथा किंवदंतियों से गुजरते
आखिर पहुँच ही जाते हम
खेत-खलिहान लाँघते बागीचे
दादी की बातों को करते अनसुना

आज स्मृतियों के कैनवास पर
अचानक उभर आया है
एक बेर का पेड़
जिसके नीचे गुजरा है
मेरे बचपन का कुछ अंश
स्कूल की छुट्टी के बाद
पेड के नीचे
टकटकी लगाये नेपते रहते
किसी बेर के गिरने की या
चलाते अंधाधुंध ढेला, लबदा

कहीं का ढेला
कहीं का बेर
फिर लूटने का उपक्रम
यहाँ बेर मारने वाला नहीं


बल्कि लूटने वाला होता विजयी
कई बार तो होश ही नहीं रहता
कि सिर पर
कितने बेर गिरे
या किधर से लगे
ढेला या लबदा

आज कविता में ही
बता रहा हूँ कि मुझे एक बार
लगा था ढेला सिर पर टन्न-सा
और उग आया था गुमड़
या बन गया था ढेला-सा दूसरा
बेर के खट्टे-मीठे फल के आगे
सब फीका रहा भाई
यह बात आज तक
माँ-बाप को नहीं बताई
हाँ, वे इस कविता को
पढ़ने के बाद ही
जान पायेंगे कि बचपन में


लगा था बेर के चक्कर में मुझे एक ढेला
खट्टा, चटपटा और
पता नहीं कैसा-कैसा
और अब यह कि
हमारे बच्चों को तो
ढेला लगने पर भी
नहीं मिलता बेर
जबसे फैला लिया है बाजार
बहेलिया वाली कबूतरी जाल
जमीन से आसमान तक एकछत्र।



संपर्क   - आरसी चौहान (प्रवक्ता-भूगोल)
 राजकीय इण्टर कालेज गौमुख, टिहरी गढ़वाल उत्तराखण्ड 249121  
 मोबा0-08858229760 ,07579173130
 ईमेल- chauhanarsi123@gmail.com



सोमवार, 20 अक्तूबर 2014

अबकि बार जब गांव गया था:आरसी चौहान





 







आरसी चौहान



अबकि बार जब गांव गया था



बहुत दिनों बाद जाना हुआ था
अबकि बार गांव 
जहां सड़कों ने ओढ़ ली थी 
कोलतारी या सीमेंटी चादरें 
और गांव में खड़े हो गये थे
विकास के बड़े-बड़े पत्थर
गांव के ठीक बीचोबीच 
मखमली घास से 
ढका रहने वाला रामलीला मैदान 
मनो हो गया हो 
गुमशुदा तलाश केन्द्र में दर्ज 
जहां हमारे दादा-परदादा के जमाने से 
लगता आ रहा है मेला दशहरा का 
बहुत जिद्द करने पर 
लिया जाती दादी घुमाने मेला
हर एक दुकानदारों की नस-नस
पहचानती थी दादी
कि कौन काटता है बटुए
कौन करता है घटतौली
और कौन बेचता है घसिटुआ समान 
इन सबके बावजूद
मल्लू हलुवाई की दुकान से
जलेबियां लेना भूलती नहीं दादी
ऐसे आते-जाते घुल मिल गये दुकानदारों से
कई सालों तक चलता रहा सिलसिला
धीरे - धीरे समझ आने लगा दशहरा के मायने 
कि अपने भूले विसरों से मिलने 
व सुखों दुखों को बांटने का
सबसे बड़ा मंच है मेला
इसी मेले में जाना हमने
अलगू कोंहार
झींगुरी बढ़ई
मल्लू हलुवाई
परचून वाला खुरचन 
गुब्बारे वाला सदलू
ओर झींगन नट

समय के साथ बदलता रहा मेला
बदलते रहे लोग
गांव में घुसता गया शहर
और शहर में विलाता गया गांव
और रामलीला मैदान से सटा पोखर भी
कहां रहा पहले जैसा 
धीरे - धीरे छूटता गया गांव
छूटता गया मेला
और छूटते गये नये पुराने लोग
कभी - कभार कर लेते मेले को याद
जैसे यादों में ही लगता है मेला
हां! इस बार जाना हुआ
अपने बच्चों साथ मेला 
जहां नहीं दीखे पुराने दुकानदार
खुरचन ने जरूर लगायी थी
परचून की दुकान
मेले में कहीं भी नहीं दिखा अलगू कोंहार
जिसके मिट्टी के बनाए खिलौने

पिछले कई वर्षों तक तो 
खरीद ही लिया करते थे 
हाथी, घोड़े, हिरन, कुक्कुर या
कभी मोर, बिल्ली और तोता
अरे हां! 
झींगुरी बढ़ई भी नहीं दिखा
काठ की बनायी बाड़ी डमरू और

मोटरगाड़ी के साथ  
 वह भीड़ में जरूर देख रहा था असहाय
जलता हुआ रावण!
पता चला गुब्बारे वाला सदलू 
चल बसा इस दुनिया से
और कई साल पहले झींगन नट तो
अपना झंड कमण्डल ही फेंककर  
ला गया कमाने सूरत
कहां देखते अब लोग
उसका कोई करतब
समय के साथ उखड़ता गया मेला
उखड़ते गये लोग
बनती गयी इमारतें  
सिमटता गया बुढ़ाती चमड़ी की तरह
रामलीला मैदान 
और हां,जरूर कभी-कभी
सियार की तरह हुंआ-हुंआ करता है गांव 
या किसी खरहा की तरह
हांफता है रामलीला मैदान
जबसे बाजार ने धंसा दिया है अपना पंजा 
गांव की छाती में
शिकारी शेर की तरह ।






संपर्क   - आरसी चौहान (प्रवक्ता-भूगोल)  
 राजकीय इण्टर कालेज गौमुख, टिहरी गढ़वाल उत्तराखण्ड 249121 
 मोबा0-08858229760 ईमेल- chauhanarsi123@gmail.com

गुरुवार, 28 अगस्त 2014

हम गांव के लोग















हम गांव के लोग
बसाते हैं शहर
शहर घूरता है गांव को
कोई शहर
बसाया हो अगर कहीं गांव
तो हमें जरूर बताना


संपर्क   - आरसी चौहान (प्रवक्ता-भूगोल
 राजकीय इण्टर कालेज गौमुख, टिहरी गढ़वाल   
 उत्तराखण्ड249121 मोबा0-08858229760
 ईमेल- chauhanarsi123@gmail.com
 

सोमवार, 14 जुलाई 2014

पगडंडियां-


आरसी चौहान की कविता


पगडंडिया कभी भी
पंचायत नहीं की
चौराहों के विरूद्ध
न ही धरना प्रर्दश ही किया
विधान सभा या
संसद भवन के आगे
जब भी चले बुलडोजर
केवल पगडंडियां
ही नहीं टूटी
टूटे हैं पहाड़
रकी हैं चट्टानें
और टूटे हैं किसी के
हजारों हजार सपने
जब तक खड़े हैं पहाड़
जीवित रहेंगी पगडंडियां
पगडंडियों का न होना
पहाड़ों का खत्म होना है ।

सोमवार, 30 जून 2014

बंघुआ मजदूर


आरसी चौहान की कविता


बंदूकों की नाल
बारूदों का बिछाया गया जाल
भय
दहशत
पैदाकर
पकड़ा दिया जाता
फावड़ा ,कुदाल
खेतों की कटाई -मंडाई
व बोझ ढोने के लिए
क्योकि -
ये बंघुआ मजदूर हैं
संविधान के नियम -अधिनियम
धारा- उपधारा के तहत
दे दिया जाता
आरक्षण
हथौड़ा व गोइता थमाकर   
बैठा दिया जाता
लोहे के गर्म के तावे
और आग उगलती चट्टानों पर
मांसपेशियां सिकुड़ जाती
दरख्तों के बलकलों सी
छोड़ दिये जाते
गण्डवानालैड की चट्टानों में
बनने के लिए कोयला
क्योंकि ये काले -कलूटे लोग हैं
जबर्दस्ती
बेरहमी से
ढकेल दिया जाता
थाली-प्लेट व गिलास थमाकर
बेरोजगारी के अखाड़े में
जूठे भात व रोटी के टुकड़ों पर
गुजर-बसर करने के लिए
जब सड़ जाती
इनकी अंतड़ियां
फिर
बंद हो जाते
दरवाजे

इन होटलों -ढाबों व रेस्तराओं के
दूसरे बाल मजदूरों पर
कहर बरसाने के लिए
खुले रहते     
नके दरवाजे
क्योंकि-
ये अशिक्षित व असभ्य हैं।

शुक्रवार, 23 मई 2014

उसकी आंखों में


















उसकी आंखों में

सूर्य
सुबह शाम का
चश्मा लगाए
जब देखता है पृथ्वी को
उतर आती है
उसकी आंखों में
प्यार की लाल चुनरी
पृथ्वी की छाती पर लहराते हुए।


संपर्क - आरसी चौहान (प्रवक्ता-भूगोल)
राजकीयइण्टरकालेजगौमुख, टिहरी गढ़वाल उत्तराखण्ड 249121                                                                                                                   मोबा0-08858229760 ईमेल- chauhanarsi123@gmail.com
 

गुरुवार, 24 अप्रैल 2014

आरसी चौहान की कविता : जूता




 









आरसी चौहान


जूता




लिखा जाएगा जब भी 

जूता का इतिहास

सम्भवतः,उसमें शामिल होगा

और कीचड़ में सना पांव 
  
बता पाना मुश्किल होगा           
                                                    
हो सकता किसी ने 

रखा हो कीचड़ में पांव 

और कीचड़ सूख कर 

 बन गया हो जूता सा
   
 फिर देखा हो किसी ने कि
  
 बनाया जा सकता है 

 पांव ढकने का एक पात्र 

 फिर बन पड़ा हो जूता

और तबसे उसकी मांग 


सामाजिक हलकों से लेकर

राजनैतिक सूबे तक में
  
 बनी हुई है लगातार


 घर के चौखट से लेकर 


युद्ध के मैदान तक

सुनी जा सकती है
  
 उसकी चौकस आवाज


 फिर तो उसके ऊपर गढे़ गये मुहावरे

लिखी गयी ढेर सारी कहानियां

और इब्नबतूता पहन के जूता
  
 भी कम चर्चा में नहीं रही कविता 

 कितने देशों की यात्राओं में
  
 शामिल रहा है ये 

 शुभ काम से लेकर

अशुभ कार्यो तक में 

 विगुल बजाता उठ खड़ा होता रहा है यह

और अब ये कि

वर्षों से पैरों तले दबी पीड़ा

दर्ज कराते ये

जनता के तने हुए हाथों में 

तानाशाहों के थोबड़ों पर
 

 अपनी भाषा,बोली और लिपि में 


  भन्नाते हुए......









संपर्क   - आरसी चौहान (प्रवक्ता-भूगोल
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