शनिवार, 12 सितंबर 2015

अपने मां होने को : आरसी चौहान





अपने मां होने को

पहला  बेटा शहीद हुआ गोधरा में
दूसरा  गोहाटी में मारा गया
हिन्दी बोलने पर
तीसरा लहूलुहान पड़ा है
महाराष्ट्र की सड़कों पर
मां कोसती है
अपने मां होने को


संपर्क   -  
आरसी चौहान (प्रवक्ता-भूगोल)
 राजकीय इण्टर कालेज गौमुख
 टिहरी गढ़वाल उत्तराखण्ड 249121  
 मोबा0-08858229760
 ईमेल- chauhanarsi123@gmail.com


मंगलवार, 18 अगस्त 2015

कबीर और मैं : आरसी चौहान



   

    अनवर सुहैल के संपादन में संकेत का 15 वां अंक मेरी कविताओं पर केंद्रित है जिसमें एक कविता कबीर और मैं

कबीर और मैं

लोग कहते हैं प्रेम
एक कच्चा धागा है
मैं धागों का रोज
कपड़ा बुनता हूं ।

संपर्क   - आरसी चौहान (प्रवक्ता-भूगोल)
राजकीय इण्टर कालेज गौमुख, टिहरी गढ़वाल उत्तराखण्ड 249121
मोबा0-08858229760 ईमेल- chauhanarsi123@gmail.com

मंगलवार, 14 जुलाई 2015

नचनिये





















मंच पर घुंघरूओं की छम-छम से
आगाज कराते
पर्दे के पीछे खड़े नचनिये
कौतूहल का विषय होते
परदा हटने तक
संचालक पुकारता एक- एक नाम
खड़ी हैं मंच पर बाएं से क्रमशः
सुनैना ,जूली , बिजली ,रानी
सांस रोक देने वाली धड़कनें
जैसे इकठ्ठा हो गयी हैं मंच पर
परदा हटते ही सीटियों
तालियों की गड़गड़ाहट
आसमान छेद देने वाली लाठियां
लहराने लगती थीं हवा में
ठुमकते किसी लोक धुन पर कि
फरफरा उठते उनके लहंगे
लजा उठती दिशाएं
सिसकियां भरता पूरा बुर्जुआ
एक बार तो
हद ही हो गयी रे भाई!
एक ने केवल
इतना ही गाया था कि 
बहे पुरवइया रे सखियां
देहिया टूटे पोरे पोर।
कि तन गयी थीं लाठियां
आसमान में बंदूक की तरह
लहरा उठीं थी भुजाएं तीर के माफिक
मंच पर चढ़ आये थे ठाकुर ब्राह्मन
के कुछ लौंडे
भाई रे ! अगर पुलिस न होती तो
बिछ जानी थी एकाध लाश
हम तो बूझ ही नहीं पाये कि
इन लौंडों की नस-नस में
बहता है रक्त
कि गरम पिघला लोहा
अब लोक धुनों पर
ठुमकने वाले नचनिये
कहां बिलाने से लगे हैं
जिन्होंने अपनी आवाज से
नयी ऊंचाइयों तक पहुंचाया लोकगीत
और जीवित रखा लोक कवियों को
इन्हें किसी लुप्त होते
प्राणियों की तरह
नहीं दर्ज किया गया
रेड डाटा बुकमें
जबकि-
हमारे इतिहास का
यह एक कड़वा सच
कि एक परंपरा
तोड़ रही है दम
घायल हिरन की माफिक
और हम
बजा रहे तालियां बेसुध
जैसे मना रहे हों
कोई युद्ध जीतने का 
विजयोत्सव।


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आरसी चौहान (प्रवक्ता-भूगोल)

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मंगलवार, 30 जून 2015

पिता





 















ट्रेन का इंतजार करते पिता

रेलवे प्लेटफार्म पर

हजारों की भीड़ में

कितना अकेले होते

जब होती ट्रेन लेट

वे चाहते तो

बस से भी आ सकते

चार गुना किराया चुकाकर

बीस पच्चीस किलो मीटर

की दूरी ही क्या है

लेकिन

वो ऐसा

कितनी बार करते

घास-फूस की तरह बढ़ती

अपनी जवान बेटियों को देखकर।


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आरसी चौहान (प्रवक्ता-भूगोल)
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गुरुवार, 21 मई 2015

मेरी चिंताएं : आरसी चौहान



 











आरसी चौहान

मेरी चिंताएं
मैं चिंतित हूं
इसलिए नहीं कि
वह लकड़ियां काटता है
कागज बटोरता है
और लुप्त हो जाता है
कबाड़ों के ढेर में
मैं चिंतित हूं
इसलिए नहीं कि
वह पत्थर तोड़ता है
मिट्टी गोड़ता है
और जला डालता
तेंदू के लपेटे पत्तों से
अपना फेफड़ा


मैं चिंतित हूं
इसलिए नहीं कि
वह ठेला ढकेलता है
नाली साफ करता है
रिक्शा चलाता है
और सहता अनगिनत रौंब
तमाचों का हिसाब नहीं

मैं चिंतित हूं
इसलिए नहीं कि
वह ईंट जोड़ता है
चूनाकली करता है
और चुन जाता कंक्रिटों के जंगल में

मैं चिंतित हूं
इसलिए नहीं कि
युवाओं को ओढ़ा दिया जाता
चादर बेरोजगारी का
और छिड़क दिया जाता
तेजाब अन्याय का
जो रिसता हुआ पहुंच जाता
संगीन जख्मों पर
और युवा बेरोजगार पिघल जाते
पृथ्वी की गुप्त गुफाओं में
जिसका किसी किताब में जिक्र नहीं
क्योंकि
ये किसी गरीब बाप के
बेरोजगार बेटे हैं।


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रविवार, 26 अप्रैल 2015

कितना सकून देता है-आरसी चौहान




                                                            आरसी चौहान 

आसमान चिहुंका हुआ है
फूल कलियां डरी हुई हैं
गर्भ में पल रहा बच्चा सहमा हुआ है
जहां विश्व का मानचित्र
खून की लकिरों से खींचा जा रहा है
और उसके ऊपर
मडरा रहे हैं बारूदों के बादल
ऐसे समय में
तुमसे दो पल बतियाना
कितना सकून देता है।


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मंगलवार, 24 मार्च 2015

उनकी नजर में : आरसी चौहान




                             आरसी चौहान 

उनकी नजर में

हम बनाते हैं महल 
 
वो करते हैं आराम 
 
हम बनाते हैं कानून  

वो जारी करते हैं फरमान
 
हम उगाते हैं फसल
 
वो काटते हैं सोना
 
हम बनाते हैं जहाज
 
वो उड़ाते हैं जहाज
 
हम बनाते हैं कश्तियां
 
वो तैराते हैं नाव
  
हम उगाते हैं मूसली
 
वो बनाते हैं वियाग्रा
  
और किसी सेलिब्रेटी के बिकनी पर
   
करते विर्यपात 

जैसे उनकी नजर में 
 
सारी दुनिया नामर्द हो गयी है

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