मंगलवार, 29 दिसंबर 2015
सोमवार, 23 नवंबर 2015
आज सोचता हूं : आरसी चौहान
आज सोचता हूं
अमरूद किसे अच्छा नहीं लगता खाना
मां बताती थी
अमरूद के एक बीज में
होता है नौ घड़ा पानी
खाओ तो सम्भलकर
नहीं तो खांसी में खाया तो
मुआ डालेगा खंसा खंसा
तब हंसता था मैं बेसुरा
आज सोचता हूं
कि मां बड़ी या विज्ञान ?
संपर्क -
आरसी चौहान (प्रवक्ता-भूगोल)
राजकीय इण्टर कालेज गौमुख,
टिहरी गढ़वाल उत्तराखण्ड 249121
मोबा0-08858229760
ईमेल- chauhanarsi123@gmail.com
आरसी चौहान (प्रवक्ता-भूगोल)
राजकीय इण्टर कालेज गौमुख,
टिहरी गढ़वाल उत्तराखण्ड 249121
मोबा0-08858229760
ईमेल- chauhanarsi123@gmail.com
शनिवार, 31 अक्टूबर 2015
कलम : आरसी चौहान
आरसी चौहान
कलम
पंखों की उर्वर जमीन पर उगे कलम
तुम्हें मालूम है अपने पूर्वजों के कटे पंख
जिसने कर दिया कितनों को अजर- अमर
और नरकट तुम
बने रहे
नरकट के नरकट !
तुम्हारी नोंक को तलवार की माफिक
बनाया गया धारदार
तुम्हारे मुंह से उगलवाया गया
मोतियों के माफिक शब्द
मंचों से वाहवाही बटोरते रहे
लेखकगण
और बदले में तुम्हारी जीभ को
काटते रहे बार- बार
फिर भी तुम बने रहे निर्विकार
नरकट
तुम्हारे भाई बंधु
किरकिच और सरकण्डे
लुप्तप्राय हो गये हैं और
आज तुम्हारी हड्डियों की कलम
तो सपने में भी नहीं दीखती
तुम्हारी शक्ल - सूरत से बेहतर
कारखानों में बनते रहे
तुम्हारे विकल्प
कीबोर्ड और कम्प्यूटर तो भरने लगे उड़ान
और बेदखल होते रहे तुम
तो क्या हुआ \
जादुई
मुस्कान
घोलते
हुए बोला नरकट
अब
तुम नहीं बर्गला सकते हमें
हैं
तो हमारे ही भाई बंधु
जो हमारे सपनों
की उर्वर भूमि पर
अंगुलियों को अपने इशारों पर
नचाते हुए
उठ खड़े हुए हैं ये
जिनके पदचापों की अनुगूंज
सुनी जा सकती है
समूचे विश्व में।
प्रकाशन-गाथान्तर ,संकेत
संपर्क - आरसी चौहान (प्रवक्ता-भूगोल)
राजकीय इण्टर कालेज गौमुख, टिहरी गढ़वाल उत्तराखण्ड 249121
मोबा0-08858229760 ईमेल- chauhanarsi123@gmail.comशनिवार, 12 सितंबर 2015
अपने मां होने को : आरसी चौहान
अपने मां होने को
पहला
बेटा शहीद हुआ गोधरा में
दूसरा
गोहाटी में मारा गया
हिन्दी बोलने पर
तीसरा लहूलुहान पड़ा है
महाराष्ट्र की सड़कों पर
मां कोसती है
अपने मां होने को ।
संपर्क -
आरसी चौहान (प्रवक्ता-भूगोल)
राजकीय इण्टर कालेज गौमुख,
टिहरी गढ़वाल उत्तराखण्ड 249121
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मंगलवार, 18 अगस्त 2015
कबीर और मैं : आरसी चौहान
अनवर सुहैल के संपादन में संकेत का 15 वां अंक मेरी कविताओं पर केंद्रित है जिसमें एक कविता कबीर और मैं
कबीर और मैं
लोग कहते हैं प्रेम
एक कच्चा धागा है
मैं धागों का रोज
कपड़ा बुनता हूं ।
संपर्क - आरसी चौहान (प्रवक्ता-भूगोल)
राजकीय इण्टर कालेज गौमुख, टिहरी गढ़वाल उत्तराखण्ड 249121
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मंगलवार, 14 जुलाई 2015
नचनिये
मंच पर घुंघरूओं की छम-छम से
आगाज कराते
पर्दे के पीछे खड़े नचनिये
कौतूहल का विषय होते
परदा हटने तक
संचालक पुकारता एक- एक नाम
खड़ी हैं मंच पर बाएं से क्रमशः
सुनैना ,जूली , बिजली ,रानी
सांस रोक देने वाली धड़कनें
जैसे इकठ्ठा हो गयी हैं मंच पर
परदा हटते ही सीटियों
तालियों की गड़गड़ाहट
आसमान छेद देने वाली लाठियां
लहराने लगती थीं हवा में
ठुमकते किसी लोक धुन पर कि
फरफरा उठते उनके लहंगे
लजा उठती दिशाएं
सिसकियां भरता पूरा बुर्जुआ
एक बार तो
हद ही हो गयी रे भाई!
एक ने केवल
इतना ही गाया था कि
‘बहे पुरवइया रे सखियां
देहिया टूटे पोरे पोर।‘
कि तन गयी थीं लाठियां
आसमान में बंदूक की तरह
लहरा उठीं थी भुजाएं तीर के माफिक
मंच पर चढ़ आये थे ठाकुर ब्राह्मन
के कुछ लौंडे
भाई रे ! अगर पुलिस न होती तो
बिछ जानी थी एकाध लाश
हम तो बूझ ही नहीं पाये कि
इन लौंडों की नस-नस में
बहता है रक्त
कि गरम पिघला लोहा
अब लोक धुनों पर
ठुमकने वाले नचनिये
कहां बिलाने से लगे हैं
जिन्होंने अपनी आवाज से
नयी ऊंचाइयों तक पहुंचाया लोकगीत
और जीवित रखा लोक कवियों को
इन्हें किसी लुप्त होते
प्राणियों की तरह
नहीं दर्ज किया गया
‘रेड डाटा बुक‘ में
जबकि-
हमारे इतिहास का
यह एक कड़वा सच
कि एक परंपरा
तोड़ रही है दम
घायल हिरन की माफिक
और हम
बजा रहे तालियां बेसुध
जैसे मना रहे हों
कोई युद्ध जीतने का
विजयोत्सव।
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आरसी चौहान (प्रवक्ता-भूगोल)
राजकीय इण्टर कालेज गौमुख,
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मंगलवार, 30 जून 2015
पिता
ट्रेन का इंतजार करते पिता
रेलवे प्लेटफार्म पर
हजारों की भीड़ में
कितना अकेले होते
जब होती ट्रेन लेट
वे चाहते तो
बस से भी आ सकते
चार गुना किराया चुकाकर
बीस पच्चीस किलो मीटर
की दूरी ही क्या है
लेकिन
वो ऐसा
कितनी बार करते
घास-फूस की तरह बढ़ती
अपनी जवान बेटियों को देखकर।
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