रविवार, 30 जून 2013

पहाड़

                      आरसी चौहान

पहाड़

हम ऐसे ही थोडे बने हैं पहाड़
हमने जाने कितने हिमयुग देखे
कितने ज्वालामुखी
और कितने झेले भूकम्
जाने कितने-कितने
युगों चरणों से
गुजरे हैं हमारे पुरखे
हमारे कई पुरखे
अरावली की तरह
पड़े हैं मरणासन्न तो
उनकी संतानें
हिमालय की तरह खड़ी हैं
हाथ में विश्व की सबसे ऊँची
चोटी का झण्डा उठाये।

बारिश के बाद      
नहाये हुए बच्चों की तरह
लगने वाले पहाड़
खून पसीना एक कर
बहाये हैं निर्मल पवित्र नदियाँ
जिनकी कल-कल ध्वनि
की सुर ताल से
झंकृत है भू-लोक, स्वर्ग
एक साथ।

अब सोचता हूँ
अपने पुरखों के अतीत
अपने वर्तमान की
किसी छोटी चूक को कि
कहाँ विला गये हैं
सितारों की तरह दिखने वाले
पहाड़ी गाँव
जिनकी ढहती इमारतों
खण्डहरों में बाजार
अपना नुकीला पंजा धंसाए
इतरा रहा है शहर में
और इधर पहाड़ी गाँवों के
खून की लकीर
कोमल घास में
फैल रही है लगातार



संपर्क - आरसी चौहान (प्रवक्ता-भूगोल
 राजकीय इण्टर कालेज गौमुख, टिहरी गढ़वाल उत्तराखण्ड 249121         मोबा0-08858229760 ईमेल- chauhanarsi123@gmail.com

शुक्रवार, 17 मई 2013

पृथ्वी को रोटी बनते हुए







पृथ्वी को रोटी बनते हुए

आपको कौन कहता है
गरीबों पर लिखने के लिए कविता
कभी उनकी हल के फाल बनकर
तो कभी फावड़े की धार बनकर
लूटना चाहते हो वाहवाही
उन्हें मालूम है
उन पर लिखी कविताएं बटोरती हैं शोहरत
लिखने वाला और भी
बटोरता है पुरस्कारों पर पुरस्कार
इससे भद्दा मजाक
और क्या हो सकता है उनसे
कि उनके पसीने की गंध पर
खिलती है पुरी दुनिया
चहकता है जीवन
और वह
सपने में देखता है
पृथ्वी को रोटी बनते हुए।




संपर्क- आरसी चौहान (प्रवक्ता-भूगोल) 
 राजकीय इण्टर कालेज गौमुख, टिहरी गढ़वाल उत्तराखण्ड 249121         मोबा0-08858229760 ईमेल- chauhanarsi123@gmail.com

सोमवार, 1 अप्रैल 2013

तुम्हारी याद




तुम्हारी याद  

 खनकाती हुई चूड़ियां 
 जब चूड़ीहारिन घूमती है 
 दर..दर  
 और लगाती है पुकार 
आने लगती है
ज्वार की तरह  
तुम्हारी  याद 

 बनिहारिनें गाती हैं 
 धान के खेतों में इठलाती हुई 
 सोहनी गीत 
 और धानी चुनरी ओढ़कर धरती 
 लहराने लगती लहंगा लगातार
मानो आसमान से मिलने का 
 कर रही हो करार 
आने लगती है  
तुम्हारी याद 

किलकारियाँ भरते बच्चों के
कोमल होठों की तरह 
 नवीन पत्तियाँ 
 बिहंसने लगती हैं अमराइयों में 
 और बौरों की भीनी. भीनी 
 महक से 
 मदमाती कोयलें बरसाने
लगती हैं
मनमोहक गीतों की फुहार 
आने लगती है  
तुम्हारी याद 

 अलियों का गुंजन 
 विहगों का कलरव 
तितलियों का इतराना
बिछुड़े हुए कबूतरों का 
 मिलते ही चोंच लड़ाना 
 भरने लगती है 
 मुझमें नव संचार 
 आने लगती है  
 तुम्हारी  याद 

 सलिला के कल कल  
 निनाद पर 
 जब लेते चुंबन तट बार.बार
और उन्मत्त पवन छू लेता है 
उसकी छाती का अग्र भाग  
आने लगती है तुम्हारी  याद 
पहाड़ियां लेटी हुई 
करती हैं प्रतीक्षा 
मखमली घास पर होकर अर्द्धनग्न 
और लिपट जाने को आतुर हैं 
व्याकुल बादलों की बाजुओं में  
बेरोक. टोक  
और टूट कर विखर जाना
चाहती हैं तार.तार  
आने लगती है
तुम्हारी  याद 

वेदना की लहरें उठने लगती हैं 
हृदय सागर में सुनामिस की तरह 
 जब मैं सुनता हूं 
हवा में गुंजती हुई तुम्हारी अंतिम हंसी 
 और देखता हूं 
 सांस की देहरी पर 
 बैठा हुआ तुम्हारा  बेरोजगार बाप 
 निहारता है  
 यदा कदा  
 उस जंग खाये पंखे को कि 
 तुम लटक रही हो निराधार
आने लगती है
तुम्हारी याद 

लेकिन 
 मैं कभी नहीं लौटूंगा 
 घायल भांटे की तरह  
 तुम्हारी यादों की हवेली से 
 होकर छिन्न.भिन्न
              प्रकाशन. हिन्दुस्तान
 
संपर्क - आरसी चौहान (प्रवक्ता-भूगोल)
राजकीय इण्टर कालेज गौमुख, टिहरी गढ़वाल उत्तराखण्ड 249121 
 मोबा0-08858229760 ईमेल- chauhanarsi123@gmail.com