शनिवार, 22 सितंबर 2018

बुनकर : आरसी चौहान




बुनकर

साड़ियां किसे अच्छी नहीं लगती
भोरहरी किरणों सा लाल लाल चटख
रंगों सी चमकती
मुस्कराती फसलों सी लहलहाती
हरी हरी साड़ियां
आसमान को जीभ बिराती
नीली नीली साड़ियां

मानों बुनकरों ने चमकती आंखों का
मोती जड़ दिया हो
सुर्ख लाल रंग में
निचोड़ दिया है अपना लहू
अपने बच्चों की खिलखिलाहट
सजा दिया है फूलों में
पत्नी के खुशियों की हरियाली
भर दिया है पत्तियों में

जब देखता है किसी मेम को हिरनी सा
उछलती इन साड़ियों में
मन नाच उठता है मोर सा

लेकिन
तमाम तमाम बुनकरों की
घायल हिरनियों सी उंगलियां
धागों के जंगलों में उलझी
खोज रही हैं जीने की नई राह।





संपर्क  - आरसी चौहान (जिला समन्वयक - सामु0 सहभागिता )
        जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी आजमगढ़, उत्तर प्रदेश
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बुधवार, 15 अगस्त 2018

पृथ्वी के जन्म पर : आरसी चौहान









पृथ्वी के जन्म पर

पृथ्वी के जन्म पर
जब गाया गया होगा पहले पहल मंगलगीत
फूल की तरह झरे होंगे झरने
पहाड़ों से करते हुए अठखेलियां
पृथ्वी हंसी होगी खिलखिलाकर
और बही होंगी जीवनदायिनी नदियां

उसके शु़द्धिकरण में
सम्भवतः बादलों के पूर्वजों ने
नहलाये होंगे पवित्र जल से
पृथ्वी ने बदली होगी अपने
शैलों के पुराने कपड़े
लहराई होगी हवा में लताओं से
अपने खुले बाल
ओढ़ी होगी चहकते आकाश में
चिड़ियों की ओढ़नी

और अब ये कि आज
उसके धड़कते जंगलों सा फेफड़े
और लहलहाती फसलों के बीच
जीवन का हिरन
कुलांचे भर रहा है।


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बुधवार, 18 जुलाई 2018

फुलेसरी बुआ : आरसी चौहान




फुलेसरी बुआ

गांव की पृष्ठभूमि पर
आज तक लिखी गयी होंगी
ढेर सारी कविताएं
जिसमें गांव को
मोहरा बनाकर
थपथपाई होगी
बहुतों ने अपनी पीठ
और गांव वहीं का वहीं
बैठा रहा गुमसुम

पर इस कविता में
एक गांव जिसकी नसों में
दौड़ती हैं खून की तरह
फुलेसरी फुआ जैसी अनगीनत लड़कियां
और इन लड़कियों से अठखेलियां करता गांव
कब किवदंतियों में बदल गया
किसी को ठीक से कुछ पता भी नहीं

हां !
दादा दादियों की कहानियों में
आ जाती फुलेसरी फुआ
अपने पुरखे पुरनियों के साथ
बैताल पच्चीसी की तरह

उनका यह नाम कैसे पड़ा
और वह पूरे गांव की फुआ कैसे बन गयी ?
इसके बारे में कुछ कह पाना सम्भव नहीं
पर यह कह सकते हैं कि
कुछ वैसे ही जैसे
चांद बन जाता है सभी लोगों का मामा

हां तो फुलेसरी फुआ
गीत गवनई में जितनी आगे थीं
उससे कम नहीं थीं नाचने में भी
उनके जीवन में वह कौन सी घटना घटी कि
जन्म से जीवन निर्वाड़ तक
छोड़ न सकीं अपना गांव
और उनके जीवन के कैनवास का
कौन सा कोना रह गया रंगने से अधूरा
जो गांव की स्मृतियों में
चमक उठता है कभी कभी

एक प्रसंग में कैसे दाखिल हुई
फुलेसरी फुआ
अपने लाव लश्कर के साथ
जब गांव में मनाया जा रहा था पीड़िया त्योहार
जिसकी सबसे बड़ा कलाकार थीं वह
पुलिसिया वर्दी के रौब का कहना ही क्या

कोल्हाड़ में सोये दो बड़े बुजुर्ग
पद में बाप दादा थे दोनों
जो गरियाने में थे बहुत बदनाम
उनको जगाकर ऐसे धमकाया
कि थरथराने लगे थे दोनों
बस इतना ही कहा था बुआ ने
कि साले ! ऐसे सोओगे तो
गांव कि बहू बेटियों का क्या होगा ?

फिर हक्का बक्का दोनों
रात की आंखों में ओझल होते बुआ को
देखते रहे बहुत देर तक
और आंकते रहे कि कौन थी स्याली ?
इत्ती रात गये
पुलिसिया वर्दी में

और अब ये कि
उस अदम्भी कलाकार की
कलाएं किंवदंतियों में बदल गयी हैं
जबकि उस कलाकार को
गुजरे हो गये बहुत दिन।


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मंगलवार, 1 मई 2018

मजदूर : आरसी चौहान





मजदूर

वे आत्महत्या नहीं करते
उन्हें पेट से आगे की दुनिया
भी नहीं दीखती
किसी लेबर चौराहे पर
अब तक नहीं देखा
जीवन से हार मानते

उसने नहीं की
गले में कभी फंदा डालने की जुर्रत
या कलाई की नसें काटने का प्रयास
सोचा भी नहीं होगा
सल्फास के बारे में

गाड़ियों के नीचे आ गया हो कभी
बेदम भूखे लड़खड़ाकर

पेट्रोल छिड़क कर तो कत्तई नहीं
किया अपने को खतम करने की कोशिश
मंड़ई जलने से जला हो कोई
अपने गोरु डांगर बचाने के प्रयास में
थकान मिटाने के नाम पर
पी लिया हो जहरीली शराब
किसी षड़यंत्र के तहत

और अब ये
कि इनके दम पर
जब भी बदला है पृथ्वी का भूगोल
खुबसूरत दीखी है पृथ्वी दूर तलक
पर दीखे नहीं मजदूर कहीं तक दूर दूर।


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शनिवार, 31 मार्च 2018

बेरोजगारी के दिनों में : आरसी चौहान




बेरोजगारी के दिनों में


मेरे करीब रहते हुए
अब तुम कितने बदल गये हो
पहचानते हुए भी
मुझे न पहचानने का अभिनय
मेरे बेरोजगारी के दिनों में
कोई ऐसा हुनर तुमसे सीखे।


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मंगलवार, 27 फ़रवरी 2018

ईश्वर की अनुपस्थिति में : आरसी चौहान




ईश्वर की अनुपस्थिति में

ऐसी हो धरती
जहां भोरहरी किरणों सा मुलायम
और मां की ममता की तरह
पवित्र हों आदमी

उनके अकुलाए हाथ
बनाने में हों माहिर
खुशियों का मानचित्र

हवाओं को लपेट कर
रख सकें सिरहाने
ऐसा हुनर हो उनमें

जीवन के घाटों पर
बांट सके एक दूसरे का सुख दुख
और जुड़ा सकें एक ही छाया तले
ऐसी हो धरती
ईश्वर की अनुपस्थिति में ।



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बुधवार, 31 जनवरी 2018

लोह के जूते : आरसी चौहान



 

















उसने नहीं पहने कभी लोह के जूते
चमड़े , प्लास्टिक और कपड़े के भी नहीं

हां बचपन में जरूर पहना था
धूल के मोजे
और कीचड़ के जूते

और अब जब
पिता ने लाद दिया उसके कंधे पर
पूरे पृथ्वी की चट्टानें

आज इन चट्टानों के पन्नों पर
वह फसलों के अक्षरों से
जीवन की नई इबारत लिख रहा है

अब वह हौसलों के पंखों से
उड़ान भरते हुए
छू रहा है सफलता की ऊंचाइयां
आसमान को मुंह बिराते हुए

आज उसके पांव़ में सना कीचड
सोने के जूते सा चमक रहा है।



रचना काल - 31 जनवरी 2018