बुधवार, 25 जनवरी 2012

आरसी चौहान की कविता-कठघोड़वा नाच


आरसी चौहान की कविता

















                     आरसी चौहान
  


कठघोड़वा नाच  

रंग-  बिरंगे कपड़ों में ढका कठघोड़वा 
घूमता था गोल- गोल 
गोलाई में फैल जाती थी भीड़
ठुमकता था टप-टप
डर जाते थे बच्चे 
घुमाता था मूड़ी 
मैदान साफ होने लगता उधर   
बैण्ड बाजे की तेज आवाज पर
कूदता था उतना ही ऊपर 
और धीमे,पर ठुमकता टप-टप
जब थक जाता
घूमने लगता फिर गोल-गोल
बच्चे जान गये थे 
काठ के भीतर नाचते आदमी को
देख लिए थे उसके घुंघरू बंधे पैर 
किसी-किसी ने तो
घोड़े की पूंछ ही पकड़कर
खींच दी थी 
वह बचा था
लड़खड़ाते-लड़खड़ाते गिरने से
वह चाहता था 
कठघोड़वा से निकलकर  सुस्ताना 
कि वह जानवर नहीं है
लोग मानने को तैयार नहीं थे  
 कि वह घोड़ा नहीं है 
बैंड बाजे की अन्तिम थापपर
थककर गिरा था
कठघोड़वा उसी लय में धरती पर  
लोग पीटते रहे तालियां बेसुध होकर 
उसके कंधे पर
कठघोड़वा के  कटे निशान 
आज भी हरे हैं
जबकि कठघोड़वा नाच और वह 
गुमनामी के दौर से 
 गुजर रहें हैं इन दिनों ।

संपर्क-   आरसी चौहान (प्रवक्ता-भूगोल)
                 राजकीय इण्टर कालेज गौमुख, टिहरी गढ़वाल
                 उत्तराखण्ड249121
                 मेाबा0-09452228335
                 ईमेल-chauhanarsi123@gmail.com


मंगलवार, 6 दिसंबर 2011

आरसी चौहान की कविता-नथुनिया फुआ



                                         आरसी चौहान

नथुनिया फुआ

ठेठ भोजपुरी की बुनावट में 
संवाद करता 
घड़रोज की तरह कूदता
पूरे पृथ्वी को मंच बना 
गोंडऊ नाच का नायक
नथुनिया फुआ”   
कब लरझू भाई से
नथुनिया फुआ बना
हमें भी मालूम नहीं भाई
हां , वह अपने अकाट्य तर्कों के
चाकू से चीड़ फाड़कर 
कब उतरा हमारे मन में
हुडके के थाप और
भभकते ढीबरी के लय-ताल पर
कि पूछो मत रे भाई
उसने नहीं छोड़ा अपने गीतों में
किसी सेठ-साहूकार  
राजा-परजा का काला अध्याय 
जो डूबे रहे मांस के बाजार में आकंठ 
और ओढे रहे आडंबर का 
झक्क सफेद लिबास 
माना कि उसने नहीं दी प्रस्तुती
थियेटर में कभी
रहा कभी पुरस्कारों की
फेहरिस्त में शामिल
चाहता तो जुगाड़ लगाकर
बिता सकता था
बाल बच्चों सहित 
राज प्रसादों में अपनी जिंदगी के   
आखिरी दिन पर ठहरा वह निपट गंवार 
गंवार नहीं तो और क्या कहूं उसको 
लेकिन वाह रे नथुनिया फुआ 
जब तक रहे तुम जीवित
कभी झुके नहीं हुक्मरानों के आगे 
और भरते रहे सांस
गोंडऊ नाच के फेफडों में अनवरत 
जबकि.....   
आज तुम्हारे देखे नाच के कई दर्शक  
ऊँचे ओहदे पर पहुंचने के बाद 
झुका लेते हैं सिर
और हो जाते शर्मशार ..................

संपर्क-   आरसी चौहान (प्रवक्ता-भूगोल)
                 राजकीय इण्टर कालेज गौमुख, टिहरी गढ़वाल
                 उत्तराखण्ड249121
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शुक्रवार, 11 नवंबर 2011

आरसी चौहान की कविता-दस्ताने

















यह चित्र गूगल से साभार

दस्ताने

यहां बर्फीले रेगिस्तान में
किसी का गिरा है दस्ताना
हो सकता है इस दस्ताने में
कटा हाथ हो किसी का
सरहद पर अपने देश की खातिर
किसी जवान ने दी हो कुर्बानी
या यह भी हो सकता है
यह दस्ताना न हो
हाथ ही फूलकर दीखता हो
दस्ताने-सा
जो भी हो
यह लिख रहा है
अपनी धरती मां को
अंतिम सलाम
या पत्नी को खत
घर जल्दी आने के बारे में
या बहन से
राखी बंधवाने का आश्वासन
या मां-बाप को
कि इस बार करवानी है ठीक मां की
मोतियाबिंद वाली आंखें
और पिता की पुरानी खांसी का
इलाज जो भी हो
सरकारी दस्तावेजों में गुम
ऐसे न जाने कितने दस्ताने
बर्फीले रेगिस्तान में पडे.
खोज रहे हैं
आशा की नई धूप ।





















यह चित्र गूगल से साभार


संपर्क- आरसी चौहान (प्रवक्ता-भूगोल)
राजकीय इण्टर कालेज गौमुख, टिहरी गढ़वाल
उत्तराखण्ड249121
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सोमवार, 17 अक्तूबर 2011

आरसी चौहान की कविता-बेदखल किसान

बेदखल किसान



















वो अलग बात है 
बहुत दिन हो गये उसे
किसानी छोड़े
फिर भी याद आती है
लहलहाते खेतों में 
गेहूं की लटकती बालियां 
चने के खेत में 
गड़ा रावण का बिजूखा
ऊख तोड़कर भागते
शरारती बच्चों का हूजुम 
मटर के पौधों में 
तितलियों की तरह 
चिपके फूल 
याद आती है अब भी 
शाम को खलिहान में
इकट्ठे गाँव के 
युवा, प्रौढ़ व बुजुर्ग लोगों से
सजी चौपाल 
ठहाकों के साथ
तम्बू सा तने आसमान में
आल्हा की गुँजती हुई तानें
 हवा के गिरेबान में 
पसरती हुई 
चैता-कजरी की धुनें 
खेतों की कटाई में 
टिडि्डयों सी उमड़ी हुई
छोटे बच्चों की जमात 
जो लपक लेते थे 
गिरती हुई गेहूँ की बालियाँ 
चुभकर भी इनकी खूँटिया
नहीं देती थी आभास चुभने का 
लेकिन ये बच्चे 
अब जवान हो गये हैं 
दिल्ली व मुंबई के 
आसमान तले
नहीं बीनने जाते 
गेहूँ की बालियाँ 
अब यहीं के होकर 
रह गये हैं 
या बस गये हैं
इन महानगरों के किनारे 
कूड़े कबाडों के बागवान में 
इनकी बीवियां 
सेंक देतीं हैं रोटियां
जलती हुई आग पर
और पीसकर चटनी ही
परोस देतीं हैं 
अशुद्ध जल में
घोलकर पसीना 
सन्नाटे में ठंडी बयार के
चलते ही 
सहम जाते हैं लोग 
कि गाँव के किसी जमींदार का 
आगमन तो नहीं हो रहा है 
जिसने नहीं जाना
किसी की बेटी को बेटी 
बहन को बहन 
और माँ को माँ
हमने तो हाथ जोड़कर
कह दिया था
कि- साहब ! 
गाँव हमारा नहीं है 
खेत हमारा नहीं है 
खलिहान हमारा नहीं है
ये हँसता हुआ आसमान 
हमारा नहीं है
नींद और सपनों से जूझते 
सोच रहा था 
वह बेदखल किसान 
महानगरों से चीलर की तरह 
चिपकी हुई झोपड़ी में
कि क्यों पड़े हो हमारे पीछे
शब्द् भेदी बाण की तरह
क्या अभी भी नहीं बुझ पायी है प्यास
सुलगती आग की तरह। 

संपर्क- आरसी चौहान (प्रवक्ता-भूगोल)
राजकीय इण्टर कालेज गौमुख, टिहरी गढ़वाल
उत्तराखण्ड249121
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